आज के कालखंड में जब भारत देश 'परिवारवाद' और 'राष्ट्रवाद' सरीखे मुद्दों में उलझा हुआ है, तब जो सबसे भयावह स्तिथि सामने आ रही है वह यह है की हम बात करने की अपनी स्वतन्त्रता खोते जा रहे हैं| सोशल मीडिया ने हमें अपने विचारों को पटल पर रखने का एक मंच दिया लेकिन उसके अत्यधिक इस्तेमाल ने हमें सिर्फ प्रतिक्रियावादी बना दिया है| आज हमारे हर एक कथन से हमारी पहचान बनायी जा रही है और उस पहचान को पाते पाते हम अपने नागरिक होने के अधिकार को खोते जा रहे हैं|
13 मई 2012 को देश की संसद अपनी 60वीं वर्षगाँठ मना रही थी और कई नेता संसद और लोकतंत्र की सफलता पर भाषण दे रहे थे | उस समय कांग्रेस सत्ता में थी और भाजपा विपक्ष में| उस दौरान भाजपा के वरिष्ठ नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी जी ने एक शानदार भाषण दिया| उन्होंने कहा की भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी खासियत ये हैं की यहां विपरीत विचारधारा के प्रति सहिष्णुता का भाव होता है| आज भाजपा सत्ता में है और विपक्ष असहिष्णुता का नारा बुलंद कर रहा है|
असहिष्णुता है या नहीं, इसपर सब की अलग अलग राय हो सकती है| लेकिन जो यथार्थ है वो यह की आज आप सत्ता के खिलाफ आसानी से आवाज़ नहीं उठा सकते हैं| अगर आप ऐसा करते हैं तो सबसे पहले आपका चरित्र हनन किया जाएगा| आपको देशद्रोही कहा जाएगा, आपके दादा-पड़दादा की कुंडलियां खंगाली जाएगी| और भी ना ना प्रकार के आरोप लगेंगे| लेकिन जो नहीं होगा वो यह की आपके द्वारा उठाये गए सवाल का जवाब नहीं दिया जाएगा|
और ऐसा नहीं है की ऐसा सिर्फ सत्ताधारी या उनके समर्थक करते हों, बल्कि तमाम राजनीतिक दलों का यही हाल है।
हद्द तो तब हो जाती है जब अरविंद केजरीवाल सरीखे नेता एक संवैधानिक पद पर रहते हुए देश के प्रधानमंत्री को खुले आम अपशब्द कहते हैं। उन्ही कि तरह देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह और मनीष तिवारी खुले आम सोशल मीडिया पर अपशब्द लिखते हैं। सबसे दुखद है कि अपशब्दों का इस्तेमाल आज के राजनीतिक परिदृश्य में लगभग लगभग अपना लिया गया है। ये देश की राजनीतिक भविष्य और हमारे समाज दोनों के लिए खतरे की घंटी है।
ऐसा नहीं है कि भारतीय राजनीति सदा से ऐसी ही रही। अगर हम पिछले एक दशक से पहले का राजनीतिक कालखंड देखें तो घोर से घोर विरोधी भी एक दूसरे के प्रति भाषायी सीमाएं नहीं लांघते थे। विरोध तब भी होता था लेकिन तर्कों के आधार पर शह और मात का खेल होता था। राष्ट्रवाद का नारा तब भी बुलंद था लेकिन तब विरोधी पक्ष को देश द्रोही नही करार दिया जाता था।
आज हम भले ही अपने अपने नेताओं का पक्ष लेकर विरोधी पक्ष को नीचा दिखाने में कामयाब हो रहे हों लेकिन इससे हमारे देश का लोकतंत्र की कमज़ोर हो रहा है। भारतीय लोकतंत्र में संवाद को सदा से सर्वोपरि रखा गया है और संवाद ही है जो इस विभिन्नताओं से भरे देश को एक सूत्र में बांधता है। इसलिए संवाद जारी राखिये, खासतौर पर अपने विरोधियों से तार्किक संवाद कीजिये। आप किसी भी विचारधारा में विश्वास रखते हों, हमेशा याद रखिये हर विचारधारा का विकास संवाद पर भी निर्भर करता है। इसलिए लोकतंत्र को ज़िंदा रखने के लिए वाद करते रहिए। जय हिंद!
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